Saturday, July 27, 2013

बाल ठाकरे: कितने मिथक, कितना सत्य

ताकझांक का सिलसिला अब चल निकला है। इस बार हम महाराष्ट्र की शान बालासाहेब ठाकरे से जुड़े अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डाल रहे हैं। नवबर, 2012 में मुंबई एनबीटी में छपे आलेख में बालासाहेब से जुड़ी रोचक बातें स्पष्ट की गई हैं। 
देखें, समझें और अपनी प्रतिक्रियाएं दें:


शिवसैनिकों से जुबानी संपर्क
बाल ठाकरे को लेकर तमाम मिथक और भ्रांतियां रहीं, लेकिन इन सबसे बेपरवाह ठाकरे अपने उसूलों, सिद्धांतों, बातों पर सदैव अडिग रहे। कभी वे अपने बयानों से पलटे नहीं, चाहें परिणाम कुछ भी हों। एक आम धारणा थी कि वे प्रत्येक शिवसैनिक के संपर्क में हैं, लेकिन उन्होंने शिवसैनिकों से संपर्क का कभी कोई चैनल तैयार नहीं किया, वे बस बोलते और शिवसैनिक उनका अनुसरण करते, मानों उनकी कहीं बातें पत्थर की लकीर हों।
बाहर से कठोर, भीतर से नर्म
शिवसेना अपने जन्म से आज तक केवल एक ही आदमी के करिश्मे से बंधी रही, वह हैं बाल ठाकरे। सिर्फ उनमें ही अपने दम पर मुंबई जैसे दिन-रात चलने वाले शहर को ठहराने की कूवत थी। साल 1966 में शिवसेना के जन्म से आज तक महाराष्ट्र में न जाने कितने मुख्यमंत्री आए और गए, अन्य दलों में कितने नेता बदले, लेकिन महाराष्ट्र में एक चीज नहीं बदली, वह थे बाल ठाकरे। जी हां, वे सही मायने में महाराष्ट्र की शान हैं। उन्हें करीब से जानने वाले कहते हैं कि वे नारियल की भांति बाहर से कठोर और अंदर से मीठे, नाजुक और नर्म थे। यही वजह थी कि वे निर्णयों पर अडिग रहते और अपने पास आने वाले हर दुखियारे की ढाल बनते। इसके अलावा किसी की क्या मजाल कि कोई उनसे जबरन कुछ करा ले।
तालियां मिलीं, पर वोट में देरी
उनका करिश्मा ही था कि भीड़ उन्हें सुनने जरूर आया करती थी, मंच पर उनके भाषण शुरू होने से पहले लाखों का हुजूम रहने पर भी सन्नाटा पसरा होता था, ताकि उनके कहे शब्दों में कुछ सुनने को छूट न जाएं। हालांकि, लाखों श्रोताओं को बटोरने वाले ठाकरे को वोट बटोरने में काफी लंबा राजनीतिक वक्त लगा, यही वजह थी कि 1995 तक महाराष्ट्र विधानसभा में उनके एक मात्र विधायक छगन भुजबल ही हुआ करते थे।
इश्यू भुनाने में महारत, आरोपों से बेपरवाह
इश्यू उठाने और उन्हें भुनाने में ठाकरे को महारथ हासिल थी। राजनीतिक द्वेष, संकीर्णता, एकाकीपन जैसे तमाम आरोपों को दरकिनार करते हुए वे मराठी माणुस का मन टटोलने की ताकत रखते थे। यही वजह थी कि मुंबई को महाराष्ट्र से अलग करने की साधारण सी चर्चा को उन्होंने राज्यव्यापी इश्यू बना डाला और सीधे-सीधे कांग्रेस पर निशाना साधा कि वह मुंबई को महाराष्ट्र से अलग करने की साजिश रच रही है। ऐसे ही, जब बाल ठाकरे ललकारते और बंद का ऐलान करते, तो क्या मजाल कि पत्ता भी खड़क जाए। बाला साहेब की अपील देव वचन जैसा असर दिखाती और बंद का ऐसा हौवा खड़ा होता कि सड़कों, गलियों, शॉपिंग सेंटरों, सोसायटियों तक में सन्नाटा पसरा रहता। बंद की अवधि शुरू होने से घंटों पहले ही माहौल बन जाता और घंटों बाद तक जन-जीवन ठहरा रहता।
सत्ता का लालच नहीं, पर सत्ता में दखल
उद्धव हों या राज, या कोई और, कोई ऐसा नेता नहीं हुआ, जो युवाओं को करिश्माई ढंग से रिझा सके। इसकी कई वजहें हैं, बाल ठाकरे को कभी सत्ता नहीं चाहिए, उनकी राजनीति स्वस्फूर्त है, जिसमें भीड़ को जगाने की अकूत क्षमता है। उनके तौर तरीकों को राजनीतिक मापदंड पर परखना बेमानी होगी, क्योंकि उनमें दुर्लभ किस्म की ईमानदारी थी और उनके तौर तरीकों में कभी कोई लाग लपेट नहीं दिखा। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं था कि लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं। राजनीति में ऐसा नगण्य ही दिखता है, उन्हें न मुख्यमंत्री बनना था, न ही प्रधानमंत्री, उन्हें तो बस लोगों के बीच उनके साथ रहना था और यही उनकी खासियत है।
लोगों का विरोध, पर लोगों के साथ
द फ्री प्रेस जर्नल में बतौर कार्टूनिस्ट करियर शुरू करने से लेकर टाइम्स ऑफ इंडिया के संडे एडिशन में छपने और खुद का कार्टून वीकली मार्मिक शुरू करने से लेकर 1989 में दैनिक सामना शुरू करने तक, या फिर राजनीति में आकर कोलाहल मचाने और हिंदू हृदय सम्राट बनने तक बाल ठाकरे की हर अदा दूसरों से जुदा थी। हर काम वे दिल खोलकर करते थे, महाराष्ट्र में गुजरातियों, मारवाडिय़ों और उत्तर भारतीयों के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ आंदोलन से लेकर मराठी माणुस के हितों की रक्षा के लिए सीना ताने खड़े रहने वाले ठाकरे ने कभी भी कहीं भी झुकना नहीं सीखा। 1995 में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन के सत्ता में आने पर बाला साहेब सरकार में न रहते हुए भी उसके फैसलों को प्रभावित करते थे, इसीलिए उन्हें रिमोट कंट्रोल तक का नाम दिया गया। लेकिन सभी आरोपों से बेअसर धुन के पक्के बाला साहेब सिर्फ अपने मन की सुनते थे और अपनी गर्जना से पूरे देश की राजनीति को हिलाकर रख देते थे।

संगीत से शुरू होता था बालासाहेब का दिन
 


 

बाल ठाकरे की सिफारिश पर संसद में बजी थी उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई







संगीत के प्रति बालासाहेब गजब का लगाव रखते थे। उनके दिन की शुरुआत संगीत से ही होती थी और यह बात उन्होंने खुद शहनाई के शहंशाह उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब से कही थी। दो दिग्गजों (बाल ठाकरे और बिस्मिल्लाह खान) के मिलन की साक्षी और संगीतज्ञ डॉ. सोमा घोष के मुताबिक बालासाहेब की सिफारिश पर ही संसद में उस्तादजी की शहनाई गूंजी थी।
डॉ. घोष ने कहा कि उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने बालासाहेब से दिली इच्छा जाहिर करते हुए कहा कि वे एक बार संसद में शहनाई की जुगलबंदी पेश करना चाहते हैं। इस पर बालासाहेब ने तत्काल मनोहर जोशी (तत्कालीन लोकसभा स्पीकर) से कह कर उस्तादजी की इच्छा पूरी कराई और 7 अगस्त, 2003 को समूची संसद शहनाई की जुगलबंदी पर झूम उठी। उनके मुताबिक मुंबई में उस्तादजी के साथ पहली जुगलबंदी नेहरू सेंटर में हुई, जहां उद्धव ठाकरे मौजूद थे, अगले ही दिन बालासाहेब ने उन्हें मातोश्री आमंत्रित किया और खुद बेहतरीन मुस्कान के साथ स्वागत किया। बालासाहेब ने उन्हें बताया कि उनके दिन की शुरुआत उस्तादजी की शहनाई से ही होती है। उस्तादजी ने डॉ. सोमा घोष से कहा कि बेटी ये (बालासाहेब) साधारण इंसान नहीं महाराज हैं, इन्हें प्रणाम करो। मुलाकात के बाद बालासाहेब खुद उन्हें (बिस्मिल्लाह खान और डॉ. घोष) बाहर तक छोडऩे आए।
उन्होंने कहा कि बालासाहेब संगीत के इतने शौकीन थे कि एक बार सिर्फ फोन पर बात हुई और वे झट से डॉ. घोष के सीडी का तत्काल विमोचन करने को तैयार हो गए। उनका संगीत के प्रति रुझान ही था कि उन्होंने समस्त कट्टïरता को दरकिनार कर उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को भाई जैसा और डॉ. सोमा घोष को बेटी जैसा प्यार दिया और साबित कर दिया कि संगीत का परिसीमन संभव नहीं है।
सर्वेश पाठक

No comments:

Post a Comment